अंधविश्वास का अंत | हिंदी नैतिक कहानी

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संक्षिप्त परिचय:
यह कहानी है बरसाईपुर गांव की, जहां मूसलाधार बारिश के साथ अंधविश्वास भी फैलता है। गांव की एक अकेली विधवा महिला धनो पर चुड़ैल होने का आरोप लगाया जाता है। लेकिन जब सच्चाई सामने आती है, तो गांव समझता है कि असल जिसको चुड़ैल समझते थे वो तो वैधानी थी।

सीन 1: गांव का परिचय और आसमान का बदलता रंग



नैरेटर: 

पहाड़ियों के बीच बसा एक शांत और सुंदर गांव — बरसाईपुर। जहां लोग खेती बाड़ी कर, मवेशियों की सेवा कर और आपसी सहयोग से जीवन जीते थे। लेकिन उस साल की बारिश कुछ अलग थी... कुछ डरावनी...

गांव की गलियों में बच्चे खेल रहे थे, महिलाएं कुएं से पानी भर रही थीं और बूढ़े पेड़ के नीचे ताश खेल रहे थे। तभी...

[धीरे-धीरे आसमान में काले बादल मंडराने लगते हैं]




बच्चा 1: (आसमान की तरफ देखकर) दादी! देखो न… बादल बहुत काले हो गए!

दादी: (कांपती आवाज में) अरे बाप रे! ये तो वही बादल हैं... जो उस साल भी आए थे… जब वो औरत गांव के बाहर देखी गई थी!

पुराना किसान: (पानी की बूंदें गिरने लगती हैं) घर चलो सब लोग… लग रहा है, तूफान आएगा मूसलाधार बारिश होने वाली है।



नैरेटर: 

तेज हवाएं चलने लगीं। पत्ते उड़ने लगे। बारिश की पहली बूंदें जैसे आसमान से नहीं, डर के बादलों से गिर रही थीं। गांव के लोग जान गए थे — ये मामूली बारिश नहीं थी।




[धीरे-धीरे बारिश तेज हो जाती है — बिजली कड़कती है]

महिला: (घबराकर) राम राम! फिर से वही होने वाला है क्या?



नैरेटर: 

कोई नहीं जानता था कि आने वाली रात, बरसाईपुर की सबसे डरावनी रात बन जाएगी...



सीन 2: बारिश के साथ डरावनी घटनाएं शुरू




नैरेटर: 

रात बढ़ने लगा था । बारिश अब केवल बूंदों की नहीं, बाढ़ की आहट बन चुकी थी। बिजली चली गई थी। अंधेरा, जैसे गांव की रूह में समा गया हो बिल्कुल सन्नाटा।



[पृष्ठभूमि में तेज बिजली की कड़क और हवा की सनसनाहट]




पुराना किसान: (लालटेन जलाते हुए) इतनी तेज बारिश मैंने पिछले तीस सालों में नहीं देखी!

गांव की औरत:  हे भगवान! घर की छत से पानी टपक रहा है…


नैरेटर: 

तभी गांव के दक्षिण छोर से एक जोरदार चीख सुनाई दी…



[चीख की आवाज: "आआआ... बचाओ...!"]

युवक: (भयभीत होकर) वो आवाज... कहीं बाहर पास के जंगल से आई है... !

दादी: (कंपकंपाते होंठों से) कहा था न… ये बारिश कुछ लेकर आई है। वो फिर लौट आई है!


नैरेटर:

कुछ लोग घरों से झांकते हैं, कुछ दरवाज़े बंद कर देते हैं। डर का माहौल बन चुका था।




[बिजली की कड़क के साथ गांव का खलिहान गिर जाता है]

पुरुष: (दौड़ते हुए) रामू का खलिहान गिर गया! भैंस नीचे दब गई है!

दूसरा पुरुष: मैंने किसी को वहां खड़े लंबी सी सफेद परछाईं…देखा था… !


नैरेटर:

हर बिजली की चमक के साथ, लोगों की आंखों में एक ही डर दिखाई देता था — "चुड़ैल लौट आई है।"

सीन 3: गांव की विधवा औरत पर शक



नैरेटर: 

बारिश की रात बीत चुकी थी, लेकिन गांव वालों के चेहरे पर डर अब भी छाया हुआ था। अगले दिन सुबह हल्की धूप निकली, पर गांव वालों के बीच कानाफूसी बढ़ गई थी।



औरत 1: (धीरे बोलते हुए) तुमने सुना? रात को चीख उसी दिशा से आई थी, जहां धनो की झोपड़ी है।

पुरुष 1: (संदेह से) मैंने तो कई बार देखा है उसे रात को अकेले चलते हुए... कुछ बड़बड़ाते हुए...

दादी: वो औरत सही नहीं है! जब से उसका आदमी मरा है, अजीब-अजीब काम करती है। जड़ी-बूटियाँ, धुआं-धुआं, कोई तो मंतर पढ़ती है!




नैरेटर: 

धनो एक गरीब विधवा थी, जो जड़ी-बूटियों से इलाज करती थी। जंगल से पत्ते लाकर, गाँव वालों का इलाज करती थी — पर अब वही उसकी मुसीबत बन चुका था।



पुराना वैश्य: कल रात की चीख, बिजली गिरना, खलिहान का गिरना... और ये औरत... सब कुछ जुड़ा हुआ लगता है!

गांव का युवक: (गुस्से में) पंचायत बुलानी चाहिए! इसका सच सामने आना चाहिए!



नैरेटर: 

और उस दोपहर, पूरे गांव की पंचायत मंदिर के सामने इकट्ठा हुई — और धनो को बुलाया गया।



[धनो की एंट्री – भीगी साड़ी, कांपते हाथ, सिर झुका हुआ]

मुखिया: धनो... तुम पर आरोप है कि तुम चुड़ैल हो। तुम जादू टोना करती हो बोलो, क्या तुमने ही ये सब किया है?

धनो:

(रोते हुए) नहीं सरकार... मैं तो बस जंगल से जड़ी बूटी लाकर बीमारों का इलाज करती हूँ... मेरे पास कुछ ऐसी शक्तियां नहीं है।


महिला: (गुस्से से) झूठ! कल रात मेरी बच्ची बुखार में तप रही थी, और तुमने कुछ जलाकर उसके सिर के पास घुमा दिया!

धनो: वो औषधि थी बहन... मैं तुम्हारी बच्ची की जान बचाना चाहती थी...



नैरेटर: 

लेकिन गांव वालों ने कुछ नहीं सुनी ... अब डर और गुस्से ने इंसानियत को ढक लिया था। और इस बार निशाना बनी थी — धनो।

सीन 4: पंचायत में आरोप और कठोर निर्णय





नैरेटर: 

बरसाईपुर की पंचायत चौपाल में बैठी थी — मुखिया, बूढ़े, नौजवान और औरतें। बीच में बैठी थी धनो — सिर झुका हुआ, आंखों से आंसू बहते हुए। और चारों ओर से… उसकी तरफ ही उंगलियां उठ रही थी।



मुखिया: (गंभीर स्वर में) धनो... तू कहती है तूने कुछ नहीं किया। लेकिन गांव में जो हो रहा है — वो सब संयोग नहीं हो सकता।

पुरुष 1: (गुस्से में) जब-जब ये औरत बारिश में दिखती है, कुछ न कुछ अनहोनी जरूर होती है!

महिला 1: हमारे बच्चे बीमार हैं, जानवर मर रहे हैं, छतें उड़ रही हैं... और ये जंगल से पत्ते लाकर कुछ जलाती रहती है!

मुखिया: (गंभीर होकर) यह पंचायत निर्णय सुनाती है…

[एक सन्नाटा छा जाता है — हर कोई सांस रोक कर सुन रहा है]

मुखिया: ...कि जब तक ये सिद्ध न हो जाए कि धनो निर्दोष है, तब तक इसे गांव से बाहर रखा जाए।

युवक: (उत्साहित होकर) हां! इसे बस्ती के बाहर बांध दो — देखेंगे क्या सच में ये चुड़ैल है!

धनो: (रोते हुए, कांपती आवाज में) मेरे भगवान... मैंने कुछ नहीं किया... मैं तो बस लोगों की सेवा करती थी...




नैरेटर: 

धनो को पकड़कर गांव के बाहर नीम के पेड़ से बांध दिया गया। अंधविश्वास की आग ने इंसानियत को निगल लिया था। बारिश अब भी हो रही थी — पर अब वो केवल पानी नहीं, धनो के आंसुओं से भीगी हुई थी।

सीन 5: सच्चाई की परत खुलती है



नैरेटर: 

बरसात अब थम रही थी, लेकिन गांव वालों की आंखें अब भी धुंधली थीं — अंधविश्वास से। धनो पेड़ से बंधी थी, कांपती हुई, गीली साड़ी में भीगी रूह की तरह।




[तभी गांव की ओर एक घोड़े पर सवार एक बुज़ुर्ग वैद्य आता है]

बुज़ुर्ग वैद्य: (आवाज़ लगाते हुए) रुक जाओ! ये औरत निर्दोष है!

मुखिया: (हैरान होकर) वैद्य जी? आप यहां?

बुज़ुर्ग वैद्य: हां! क्योंकि मेरी बेटी की जान इस औरत ने बचाई है। जब पूरा गांव बारिश से डर रहा था, ये जंगल से औषधि लेकर आई… उसने मेरी बेटी को ठीक किया… जब उसका बुखार नहीं उतर रहा था, ये उसे तंत्र मंत्र से नहीं, जड़ी-बूटियों से ठीक कर रही थी।

महिला 1: (शर्मिंदा होकर) पर… वो धुआं? वो मंतर जैसी बातें?

धनो: (धीरे से) वो मंत्र नहीं था बहन… मैं तो सिर्फ भगवान से दुआ मांग रही थी… ताकि तुम्हारी बच्ची ठीक हो जाए।


नैरेटर: 

पूरे गांव में खामोशी छा गई। अब तक जो उंगलियां उठ रहीं थीं,वो अब माफ़ी मांगने पर विवश हो रहे थे।



मुखिया: (गंभीर स्वर में) हमने एक निर्दोष पर अत्याचार किया। ये हमारा पाप है। धनो… हम शर्मिंदा हैं।

गांव वाले: (एक सुर में) माफ करना धनो बहन... हमसे भूल हो गई।



नैरेटर: 


धनो की आंखों से आंसू गिरे — अब डर से नहीं, बल्कि इस उम्मीद से कि शायद अब गांव की सोच बदल रही है…

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