सारांश:
यह कहानी गोपाल नामक दरबारी की है, जिसे एक झूठे चोरी के आरोप में राजदरबार से निकाल दिया जाता है। लेकिन अपनी बेगुनाही सिद्ध करने के लिए वह खुद एक चोर बनता है और असली अपराधियों को बेनकाब करता है। यह कहानी न्याय, आत्मबल और साहस की एक प्रेरणादायक मिसाल है।
सीन 1: दरबार का विश्वसनीय सेवक
स्थान: महाराज वीरसिंह का भव्य दरबार। चारों ओर स्तंभों से सजा हुआ विशाल कक्ष, दरबार में दरबारी और सैनिक कतार में खड़े हैं।
वर्णन:
राजा वीरसिंह अपने सिंहासन पर बैठे हुए हैं। सामने गोपाल नामक सेवक खड़ा है — सादा वस्त्र, लेकिन आँखों में चमक और चेहरे पर आत्मविश्वास। वह दरबार के कामों में निपुण और सभी का प्रिय सेवक है।
संवाद:
राजा वीरसिंह (मुस्कुराते हुए): गोपाल! तुम्हारी ईमानदारी की चर्चा पूरे राज्य फैला है।
गोपाल (विनम्रता से झुकते हुए): महाराज, यह सब आपकी कृपा है। मुझे जो भी ज़िम्मेदारी दी जाती है, मैं उसे अपना धर्म समझकर निभाता हूँ।
मुख्यमंत्री (हँसते हुए): महाराज, यदि राज्य में हर सेवक गोपाल जैसा हो, तो राज्य में कोई समस्या ही नहीं रहेगा।
दूसरा दरबारी (मनो हीन भाव से): (धीरे से) इतना चापलूस बनना भी ठीक नहीं... राजा का यह चहेता ज़्यादा दिनों तक टिकने वाला नहीं है। तुम देखना कुछ ही दिनों में वह महाराज का आंखों का कांटा लगने लगेगा ।
(कैमरा दरबारी के चेहरे पर ज़ूम करता है जो भीतर ही भीतर ईर्ष्या से भरा है।)
राजा वीरसिंह: गोपाल, कल का विशेष भोज और खजाने की का लेखा जोखा तुम्हारे ही जिम्मे है। किसी भी प्रकार की चूक नहीं होनी चाहिए।
गोपाल: जैसा आदेश, महाराज।
वर्णन (नरेटर की आवाज):
गोपाल का जीवन ईमानदारी की मिसाल था, लेकिन दरबार में सबको उसकी अच्छाई रास नहीं आ रही थी। कुछ लोग उसकी अच्छाई से जलने लगे थे... और यही ईर्ष्या भविष्य में एक बड़ी साजिश का रूप ले लेती है। उससे जलने वाले ही उसे जाल में फंसा देते हैं।
सीन 2: साज़िश और झूठा आरोप
स्थान: राजमहल का खजाना कक्ष और दरबार
वर्णन:
अगली सुबह दरबार में बहुत हलचल है। खजाना कक्ष के द्वार खुले हैं, सैनिक अंदर-बाहर दौड़ते दिख रहे हैं। गोपाल वहीं खड़ा है, और राजा गुस्से में सिंहासन पर बैठा है। मंत्री और दरबारी दरबार में जमा हो चुके हैं।
संवाद:
राजा वीरसिंह (गंभीर स्वर में): खजाने कक्ष से सबसे कीमती मूंगा हार और राजमुद्रा गायब हैं? यह कैसे हो सकता है?
सैनिक: महाराज, कल रात के बाद से खजाने कक्ष का दरवाज़ा नहीं खोला गया... लेकिन भीतर से ही सामान गायब है।
मुख्यमंत्री: महाराज, कल खजाने की जिम्मेदारी तो गोपाल के पास ही थी...
राजा (आश्चर्य और संदेह के साथ): गोपाल? क्या यह सच है?
गोपाल (घबराकर): हां महाराज, मैंने खजाना कक्ष पूरी सुरक्षित और सावधानी से बंद किया था। मैंने कोई चोरी नहीं की! यह मुझे फंसाने की साज़िश की जा रही है!
दूसरा दरबारी (मुस्कुराते हुए): चोर कभी खुद को चोर नहीं मानता महाराज... मगर सच तो यह है कि खजाने की चाबी गोपाल के पास ही थी।
राजा (क्रोधित होकर): गोपाल! जब तक यह साबित न हो कि तुम निर्दोष हो, तुम्हें दरबार से निष्कासित किया जाता है।
गोपाल (आहत स्वर में): महाराज! कृपया मुझे एक मौका दें... मैं अपनी बेगुनाही साबित करूंगा।
राजा: जब तक तुम अपनी बेगुनाही साबित नहीं नहीं करते हो... तब तक, तुम्हें दरबार छोड़ना होगा।
(कैमरा गोपाल के चेहरे पर जाता है — उसकी आँखों में आँसू, लेकिन चेहरे पर दृढ़ संकल्प है। वह चुपचाप दरबार से बाहर निकल जाता है।)
वर्णन (नरेटर की आवाज):
एक ईमानदार सेवक पर झूठा इल्ज़ाम लग गया... और उसकी इज्जत पलभर में मिट्टी में मिल गई। लेकिन गोपाल हार मानने वालों में से नहीं था — वह ठान लेता है कि अब वह अपनी बेगुनाही साबित करके ही रहेगा।
सीन 3: गोपाल की बेबसी और बदनामी
स्थान: महल के बाहर का इलाका, नगर की गलियां, गोपाल का घर
वर्णन:
गोपाल दरबार से बाहर निकलता है, सिर झुका हुआ है। कुछ लोग दूर से उंगलियां दिखाकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। उसके घर पहुंचते ही पड़ोसी दरवाजे बंद कर लेते हैं। उसकी मां बीमार पड़ी है और गोपाल खुद को असहाय महसूस करता है।
संवाद:
पहला ग्रामीण (ताने मारते हुए): देखो-देखो! यही है वो दरबारी चोर! देखने में तो बहुत सीधा-सादा लगता था, लेकिन यह तो चालाक चोर निकला !
दूसरी औरत: हे भगवान! हम तो इसको बहुत ही इंसान समझते थे... लेकिन अब तो इसका चेहरा देखकर भी डर लगता है।
गोपाल (मन में): मैं चोर नहीं हूँ... लेकिन जब तक सच्चाई सामने नहीं आएगी, मुझे चुप रहना होगा, लोगों के बातों पर ध्यान नहीं देना होगा।
वर्णन: रात को गोपाल अपनी बीमार मां के पास बैठा होता है। मां उसकी आँखों में दर्द देखती है।
गोपाल की मां (कमज़ोर आवाज में): बेटा, मैं जानती हूं तू निर्दोष है... लेकिन क्या तुझमें इतनी ताकत है कि तू इस झूठे कलंक को धो सके? तू कैसे अपनी बेगुनाही साबित करेगा।
गोपाल (मजबूती से): मां, अगर मैं चुप रहा तो मुझ पर लगा ये इल्जाम सच हो जाएगा। अब मुझे अपना बदनामी को खत्म करना ही होगा।
वर्णन (नरेटर की आवाज):
गोपाल जान चुका था कि जब तक असली चोर का पर्दाफाश नहीं होगा, तब तक उसकी इज़्जत नहीं लौटेगी। और तभी उसने एक ऐसा फैसला लिया — जो उसकी ज़िंदगी की दिशा ही बदल दिया।
सीन 4: गोपाल चोर बनता है
स्थान: नगर की तंग गलियां, जंगल के किनारे एक गुफा
वर्णन:
अंधेरी रात। चांद बादलों में छिपा है। गोपाल साधारण कपड़ों में अपने घर से निकलता है। एक हाथ में पुरानी तलवार, दूसरी में कपड़े का झोला। वह अब चुपचाप जंगल की ओर जा रहा है — जंगल में ही वह अपना ठिकाना बनाने जा रहा है।
संवाद:
गोपाल (मन में, चलते हुए): अब मैं गोपाल नहीं... अब मैं वो साया हूं, जो हर गुनहगार के पीछे रहेगा। जब तक असली चोर नहीं पकड़ा जाता, तब तक मैं भी चोर कहलाने को तैयार हूं।
वर्णन: गोपाल जंगल के पास एक पुरानी गुफा में पहुंचता है। वहां वह अपने रहने का इंतजाम करता है — कुछ सूखी लकड़ियां, एक मटकी, और एक छुपा हुआ संदूक।
गोपाल (अपने आप से): यहीं से शुरू होगा मेरा सफर। मैं अब उन सभी दरबारियों पर नज़र रखूंगा जो खजाने के आसपास मंडराते हैं।
वर्णन:
रात को नगर में एक हवेली के पास हलचल होती है। एक छाया धीरे-धीरे दीवार फांदकर भीतर जाती है। पहरेदारों को भनक तक नहीं लगती है। ये कोई साधारण चोर नहीं — यह गोपाल है, वह असली चोर का पता लगाने के लिए ऐसा करता है।
नरेटर की आवाज:
गोपाल अब चोरी करने जा रहा है — लेकिन वो हर चीज़ जिसे वो चोरी करेगा, उसका हिसाब किताब रखेगा। न तो वो कुछ अपने लिए लेगा, न किसी को नुक़सान पहुँचाएगा। उसका मकसद एक ही है: सच्चाई को उजागर करना। वाक् कई समान चोरी कर लेता है ।
गुप्त ठिकाने पर: गोपाल एक रजिस्टर निकालता है। हर चुराई गई वस्तु को नोट करता है और एक संदूक में संभालकर रखता है।
गोपाल (धीरे से): एक दिन ये सब मैं राजा के सामने पेश करूंगा... और शायद इससे असली चोर को पकड़ने में सहायता कर सकता है।
सीन 5: चोरी करना लेकिन जमा करना
स्थान: नगर की अलग-अलग हवेलियाँ, महल की बाहरी दीवारें, गोपाल का गुप्त ठिकाना
वर्णन:
रात का समय। नगर में अफवाह उड़ चुकी है कि कोई अनजान चोर अमीरों के घरों से किसी को बिना नुकसान पहुंचाएं कीमती वस्तुएँ चुरा रहा है ।
संवाद और दृश्य:
नगर वासी 1: अजी सुनिए! वो नया चोर बड़ा अजीब है... चुपचाप आता है, कुछ ले जाता है, लेकिन न कोई तोड़फोड़, न कोई मारपीट। किसी को कानों कान खबर नहीं होती ।
नगर वासी 2: हाँ... और सुनने में आया है कि चोरी की हुई चीजों का पता भी नहीं चलता कहां जाता है, किसी के पास बिकती भी नहीं दिखीं!
(दृश्य कट होता है गोपाल के गुप्त ठिकाने पर। वहां एक लकड़ी का संदूक खुलता है। उसमें मोहरें, आभूषण, मुद्राएँ और दस्तावेज जमा हैं।)
गोपाल (रजिस्टर में लिखते हुए): हवेली नंबर 3 — सोने का कंगन, एक राजमुद्रा... असली चोर इन्हीं जगह से चोरी किया था।
वर्णन: गोपाल अपने द्वारा चुराई गई हर वस्तु का हिसाब रजिस्टर में लिखता है और उन्हें संदूक में सुरक्षित रखता है।
गोपाल (मन में): मैं एक चोर नहीं, मैं सिर्फ सबूत जमा कर रहा हूँ... और वक्त आने पर यही सबूत मेरी बेगुनाही की गवाही देंगे।
वर्णन: कई रातें बीतती हैं। गोपाल अब अमीर दरबारियों की गतिविधियों पर नज़र रखता है। खासतौर पर उस दरबारी पर, जिसने उसके खिलाफ झूठा आरोप लगाया था।
(कैमरा उस दरबारी को दिखाता है जो एक सुनसान जगह पर कुछ संदिग्ध लोगों से मिल रहा है।)
गोपाल (दूर से छिपकर): यही है असली चोरों का सरदार... और एक दिन इसका सारा राज़ खोलकर रख दूँगा।
नरेटर की आवाज:
गोपाल अब एक सच्चाई की लौ है, जो अंधेरे में भले जल रही हो, लेकिन एक दिन उजाला बनकर राज्य को रौशन करेगी।
सीन 6: असली चोर का सुराग और भंडाफोड़ की योजना
स्थान: नगर की सीमा पर एक खंडहर, गोपाल का गुप्त ठिकाना
वर्णन:
गोपाल अब लगातार उस दरबारी का पीछा कर रहा है, जिसने उस पर झूठा इल्ज़ाम लगाया था। एक रात वह दरबारी कुछ संदिग्ध लोगों से खंडहर में चोरी का माल बाँटते हुए पकड़ा जाता है। गोपाल छिपकर सब देख रहा है।
संवाद और दृश्य:
(खंडहर में तीन लोग खड़े हैं — एक दरबारी, दो बाहरी आदमी)
दरबारी (धीरे से): राजा को अब तक कुछ शक नहीं हुआ है। गोपाल पर आरोप लगते ही सब आसान हो गया।
गुंडा: लेकिन वो नया छाया चोर... उसके आने से डर बढ़ गया है। चोरी की वारदात ज्यादा होने पर सुरक्षा बढ़ा दिया जाएगा ।
दरबारी (हँसते हुए): अरे! वो जो भी है, मेरे राज का क्या बिगाड़ेगा?
(दृश्य बदलता है — गोपाल झाड़ियों के पीछे छिपा हुआ सब सुन रहा है। उसके चेहरे पर गुस्से और संतोष का मिला-जुला भाव है।)
गोपाल (धीरे से): तो यही है असली चोर... जिसने मुझे बदनाम किया। अब वक्त आ गया है — हर चीज़ का हिसाब देने का।
वर्णन: रात को गोपाल अपने ठिकाने पर लौटता है। वह संदूक खोलता है, सबूतों को एक जगह सजाता है और अगले दिन की योजना बनाता है।
गोपाल (रजिस्टर के पन्ने पलटते हुए): अब मैं चुप नहीं रहूंगा। मैं खुद को राजा के सामने पेश करूंगा — हर सबूत के साथ।
वर्णन: गोपाल एक आखिरी खत तैयार करता है — जिसे वह राजा तक पहुँचाने की योजना बनाता है।
नरेटर की आवाज:
सच्चाई को चुप नहीं रखा जा सकता... और जब एक निर्दोष की पीड़ा साक्ष्य बन जाए — तो न्याय दूर नहीं होता। अगली सुबह, दरबार में सब कुछ बदलने वाला था।
सीन 7: राजा के सामने गोपाल की सच्चाई
स्थान: राजदरबार, दिन का समय
वर्णन:
राजा वीरसिंह दरबार में बैठे हैं। सैनिक, दरबारी और नगर के प्रमुख लोग उपस्थित हैं। अचानक एक सिपाही दरबार में प्रवेश करता है और कहता है कि एक चोर दरबार में आने की अनुमति माँग रहा है। राजा हैरान होते हैं लेकिन अनुमति दे देते हैं।
संवाद और दृश्य:
सैनिक: महाराज, वह... चोर दरबार में उपस्थित होना चाहता है। वह कहता है कि राज्य के खजाने और गोपाल की सच्चाई से जुड़ी कुछ बातें बतानी हैं।
राजा (सख्ती से): अगर वह कुछ छिपा नहीं रहा है, तो उसे अंदर आने दो!
(दरवाज़ा खुलता है। चेहरा ढँके हुए एक व्यक्ति अंदर प्रवेश करता है — और धीरे-धीरे अपना नकाब हटाता है। सब देखते हैं कि यह तो गोपाल है। सब हैरान रह जाते है !)
दरबारी (चौंककर): ये तो वही गोपाल है, जिस पर चोरी का आरोप था!
राजा (गंभीर स्वर में): गोपाल! क्या यह सच है? तुम ही... वो चोर हो जो किसी को बिना नुकसान पहुंचाए चोरी करते थे?
गोपाल: हाँ महाराज। मैंने चोरी की... लेकिन सिर्फ़ सच्चाई को उजागर करने के लिए। मैं हर वस्तु को यहाँ लाया हूँ — देखिए ये रजिस्टर, यह खजाना, और यह वो सबूत हैं जो असली चोर की ओर इशारा करते हैं। मेरे चोरी करने से वो हड़बड़ा गया था ।
वर्णन: गोपाल रजिस्टर खोलकर दिखाता है — हर चुराई गई वस्तु की सूची, स्थान और तारीख के साथ। फिर वह उस दरबारी का नाम लेता है जिसने उसे फँसाया था।
गोपाल: इस दरबारी ने मुझे झूठे इल्ज़ाम में फँसाया... और खुद खजाने की चोरी करता रहा। कल रात मैंने इसे खंडहर में चोरी का माल बाँटते देखा।
(राजा गुस्से में सैनिकों की ओर इशारा करते हैं)
राजा: सैनिकों! उस दरबारी को तुरंत बंदी बना लो! और उसके घर की तलाशी ली जाए।
वर्णन: सैनिक उस दरबारी को पकड़ते हैं। कुछ देर बाद दूसरे सैनिक लौटते हैं और पुष्टि करते हैं कि उसके घर से चोरी का सामान मिला है।
राजा (भावुक होकर): गोपाल... मुझे खेद है। मैंने तुम्हें गलत समझा। तुम्हारी निष्ठा और साहस को मैं ससम्मान स्वीकार करता हूँ।
गोपाल (नम आँखों से): महाराज, मेरा उद्देश्य कभी बदला नहीं था — बस अपना नाम वापस चाहिए था।
राजा: तुम्हारा नाम अब पूरे राज्य में आदर से लिया जाएगा। मैं तुम्हें पुनः अपना प्रमुख सेवक नियुक्त करता हूँ — और न्याय के प्रतीक के रूप में तुम्हारी बहादुरी को सम्मानित करूंगा।
नरेटर की आवाज:
एक झूठा इल्ज़ाम... एक सच्चे इंसान का संघर्ष... और अंततः न्याय की जीत होती है। गोपाल की कहानी सिखाती है — कि सच्चाई चाहे जितनी भी देर से उजागर हो, उसका उजाला पूरे अंधकार को मिटा देता है।
सीन 8: गोपाल का सम्मान और कहानी का समापन
स्थान: राजमहल का प्रांगण, विशेष दरबार आयोजित
वर्णन:
राजमहल के विशाल प्रांगण में एक विशेष समारोह आयोजित किया गया है। पूरा नगर एकत्र हुआ है। फूलों की सजावट, ढोल-नगाड़ों की आवाज़ और सैनिकों की कतारें माहौल को गरिमामय बना रही हैं। मंच के बीचोंबीच राजा बैठे हैं, और सामने गोपाल को सम्मानित करने की तैयारी चल रही है।
संवाद और दृश्य:
(राजा मंच पर खड़े होकर जनता को संबोधित करते हैं)
राजा वीरसिंह: प्रजा जनों! आज मैं उस व्यक्ति को सम्मानित करने जा रहा हूँ, जिसे हम सबने कभी अपराधी समझा... लेकिन उसने साबित कर दिया कि सच्चाई और ईमानदारी कुछ देर के लिए दब सकती है लेकिन अंत में जीत उसी की होती है।
(सैनिक गोपाल को मंच पर लाते हैं, जनता तालियों से स्वागत करती है)
राजा: मैं गोपाल को "राज-न्याय प्रहरी" की उपाधि देता हूँ और आज से वह राज्य के न्यायिक मामलों में मेरी सबसे बड़ी सहायता करेगा।
(राजा गोपाल को सोने की तलवार, राजवस्त्र और सम्मान-पत्र प्रदान करते हैं)
गोपाल (भावुक होकर): महाराज, यह सम्मान केवल मेरा नहीं... यह हर उस इंसान का है जिसे कभी झूठे आरोपों को झेला है । आज आपने दिखा दिया कि राजा केवल शक्ति नहीं, न्याय का भी प्रतीक है।
वर्णन: भीड़ में गोपाल की बूढ़ी मां खड़ी होती है, उसकी आँखों में आंसू हैं — लेकिन वो आंसू अब गर्व के हैं।
मां (धीरे से): मेरा बेटा हार कर भी जीत गया... और अब सारा गाँव उसे आदर्श मानेगा।
(दरबार के अंत में ढोल बजते हैं, गोपाल जनता की ओर मुस्कराकर देखता है।)
नरेटर की आवाज:
झूठ चाहे जितनी बार गूंजे, उसे चुप करने के लिए सच्चाई का एक शब्द ही काफी होता है । गोपाल की कहानी यही बताती है — कि जब नियत साफ हो, तो रास्ता खुद बनता जाता है।
