दयालु राजा और गरीब किसान Dayalu Raja Or Garib Kisan | प्रेरणादायक हिंदी कहानी

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दयालु राजा और गरीब किसान | प्रेरणादायक हिंदी कहानी 




alt="दयालु राजा एक गरीब किसान की मदद करते हुए - हिंदी नैतिक कहानी का चित्र"

सीन 1: गांव और किसान का संघर्ष

सुबह का सूरज, सूखा खेत, गांव का माहौल

Narrator :
"सोनपुर के गांव में अकाल पड़ गया था जिसमें सभी खेत सूख गए थे फसल की उत्पत्ति भी नहीं हुई सारे फसल सूखे के कारण नष्ट हो गया बारिश एक बूंद भी नहीं हुई।"


रघु अपने खेत में मेहनत करता हुआ, हल लेकर अपनी सूखी खेत को देखता है

Narrator:
"रघु, एक गरीब किसान, सुबह से शाम तक इस सूखे खेत में मेहनत करता है। लेकिन आसमान से बारिश का नामोनिशान तक नहीं था। काल और सुख पड़ जाने के कारण वह अपने खेतों में फसल तक नहीं लगा पा रहा था।"


रघु : (धीरे, आत्मसंयम से) "मेहनत तो हर साल की, लेकिन ये सूखा सब कुछ बर्बाद कर रहा है। इस बार क्या होगा? अगर इसी तरह सुखा पड़ती रहे और बारिश नहीं हुई तो इस बार हम लोग भूखे मर जाएंगे हमारे पास खाने को अनाज तक नहीं है ।"


रघु घर लौटता है, पत्नी गीता बच्चों के साथ आंगन में बैठे हुए हैं

Narrator:
"घर में उसका परिवार खाने को मोहताज हैं, कुछ भी खाने का अनाज नहीं होने के कारण उसकी पत्नी और बच्चे किसान को देखते हैं किसान अपनी माली स्थिति से बहुत दुखी है वह दोनों को सांत्वना देता है ।"


गीता:

(धीमी आवाज़ में) "रघु, आज घर में एक दाना भी नहीं है। बच्चों को क्या खिलाएँ? बच्चे का भूख के मारे उसका हालत खराब हो गया है ।"

रघु: 

(थोड़ा हिचकते हुए, फिर आत्मविश्वास से) "घबराओ मत, मैं इस बारे में गांव के लोगों से बात करता हूं और महाराज से इसका हल निकालने को बोलता हूं, ताकि गांव के ऐसे ही सभी गरीब किसान के घर में खाने को कुछ दाना आए और हमें भूखा नहीं रहना पड़े।"


गाँव का चौपाल, गांव के बुजुर्ग लोग इकट्ठे हुए, इस बारे में बातचीत हो रही है ।

Narrator:
"गाँव के लोग भी उसी संकट में थे। हर चेहरा चिंता में डूबा हुआ। उनके शब्दों में गुस्सा, निराशा और उम्मीद के मिले-जुले रंग थे।"


बूढ़ा किसान:
"महाराज हमारे दुख को नहीं समझता। क्या हमारा दर्द सुनने वाला कोई है?"

गांव का युवक:
"अगर हम आवाज़ नहीं उठाएंगे, तो हमे कौन मदद करेगा?"


रघु अकेले खेत के किनारे बैठा, आसमान की ओर देखता है

Narrator:
"रात को, रघु खेत के किनारे बैठा, आसमान के तारे गिन रहा था। उसके दिल में एक ठोस फैसला बन रहा था — वह राजा के पास जाएगा, अपनी आवाज़ सुनाएगा।"


रघु :
"मैं अपनी मेहनत का हिसाब राजा से मांगूँगा। ये मेरा हक़ है। ऐसे दुख घड़ी में अगर महाराज हमारी मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा ।"


घर में रघु और उसकी पत्नी आपस में बातचीत करते हैं

गीता:
( रघु से) "क्या महाराज हमारी बात सुनेंगे? हमारी मदद करेंगे ?"

रघु:
(हिम्मत से) "हमें कोशिश करनी ही होगी। हम चुप नहीं रह सकते।"

बच्चा:
(उत्सुक) "पापा, क्या आप हमें भूखा नहीं रहने देंगे?"

रघु:
(मुस्कुराते हुए) "नहीं बेटा, हम मिलकर इस लड़ाई को लड़ेंगे और अगर भगवान ने चाहा तो हम जरूर जीतेंगे।"


रघु राजमहल के दरबार की ओर निकलता है, दृढ़ निश्चय के साथ ।

Narrator:
"रघु ने ठाना था — चाहे जो भी हो, वह अपनी मेहनत और अपने गाँव के लिए आवाज़ उठाएगा। यह संघर्ष की शुरुआत थी, एक नए बदलाव की कहानी।"


सीन 2: दरबार में राजा वीरसेन

Narrator:
अगली सुबह सूरज राजमहल की ऊँची मीनारों से टकरा रहा था। राजमहल में हलचल थी। दरबारी, सेनापति, नौकर-चाकर — सभी अपने कामों में व्यस्त थे। हर रोज़ की तरह दरबार सजने वाला था… लेकिन आज कुछ अलग था।


राजा वीरसेन, जो जितना दयालु था, उतना ही समझदार भी। उसके चेहरे पर राजसी गरिमा थी, लेकिन आँखों में जनता का दर्द पढ़ा जा सकता था।


राजा वीरसेन (मुस्कुराते हुए):
"आज कौन-कौन आया है दरबार में? देखना है मेरी प्रजा के मन में क्या चल रहा है। मेरी प्रजा कहीं दुखी तो नहीं है ।"

Narrator:
दरबार सज चुका था। दूर-दूर से आए लोग, हाथ जोड़कर अपनी समस्याएँ सुनाने लगे — किसी की जमीन छिन गई थी, किसी को बारिश ने तबाह कर दिया था। लेकिन सबके चेहरों में एक विश्वास था — कि महाराज सबकी दुख को सुनेंगे और उसकी मदद करेंगे

(जनता के संवाद)
"महाराज, बाढ़ में सब कुछ चला गया..."
"हमारे बच्चों के पास खाने को कुछ नहीं..."
"करों का बोझ अब असहनीय है..."


राजा वीरसेन (गंभीर होकर):
"सबकी बात ध्यान से सुनो। जब तक आख़िरी व्यक्ति की पीड़ा नहीं समझेंगे, राजधर्म अधूरा रहेगा।"

Narrator:
तभी एक सिपाही दौड़ते हुए दरबार में आता है। उसकी साँसें तेज़ हैं लेकिन चेहरा गंभीर।

सिपाही:
"महाराज! एक गरीब किसान महल के बाहर खड़ा है। वह आपसे मिलने की ज़िद कर रहा है। झोपड़ी से चला है… और सीधे महल की चौखट तक आ गया है!"

(दरबारी हँसते हैं, कुछ ताने मारते हैं)
"क्या अब हर किसान सीधे राजा से मिलने आएगा?"
"ये तो दरबार की मर्यादा के बाहर है!"


Narrator:
लेकिन राजा वीरसेन ने वह कहा जो सदियों तक याद रखा जाएगा।

राजा वीरसेन:
"जिसने धूप में हल चलाया है, वो मेरी छाँव का हक़दार है।
जिसकी हथेलियों पर मिट्टी है, वही इस धरती की असली ताकत है।
ले आओ उसे। दरबार की मर्यादा तभी पूरी है, जब किसान की आवाज़ इसमें गूंजे।"


दरबार में सन्नाटा छा गया। हर चेहरा महाराज की बातें सुनकर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे

Narrator:
रघु — फटे कपड़े, धूल से सना बदन, लेकिन आँखों में आत्मसम्मान। वो अकेला नहीं था — उसके साथ थी हर उस मेहनतकश की आवाज़ जो अब तक अनसुनी थी।

रघु (अपने आप से):
"अब मैं झुकूँगा नहीं… महाराज से अपनी बात कहूँगा। ये मेरी आख़िरी उम्मीद नहीं — ये मेरी पहली हिम्मत है।"


सीन 3: राजा और किसान की पहली मुलाकात

Narrator:
राजमहल के भव्य दरबार में सन्नाटा पसरा था। रघु धीरे-धीरे महल की ओर बढ़ रहा था — हर कदम आत्मविश्वास से भरा, लेकिन आंखों में वर्षों की थकावट और एक उम्मीद की चमक थी।


महल के फर्श पर उसकी बिन चप्पल की पाँव की आहट तक साफ सुनाई दे रही थी। उसकी चुप्पी, दरबारियों के घमंड से बड़ी थी।


राजा वीरसेन (रघु को देखकर):
"आओ किसान, डरो मत। इस महल के दरवाज़े तुम्हारे जैसे लोगों के लिए ही खुले हैं।"

रघु (झुककर, लेकिन आत्मसम्मान से):
"महाराज, मैं भीख माँगने नहीं आया। मैं अपनी और अपने गांव वालों की समस्या को लेकर आया हूं।

राजा (आश्चर्य से):
"कहो, तुम्हारी बात क्या है?"

रघु:
"महाराज, जब खेत सूखे हैं, तब कर क्यों लगे हैं? जब अन्न नहीं उपजा, तो कर वसूली कैसे सही ठहरती है? हमारी मेहनत तो धरती निगल गई, हमारे घर में खाने-पीने को कुछ भी नहीं  है फिर हमारे ऊपर कर क्यों लगाया गया ? क्या हम कर देनेे योग्य हैं ?


रघु की आवाज़ कांप रही थी, लेकिन उसमें डर नहीं — दर्द था, और सच्चाई थी।

 

Narrator:
दरबार एकदम शांत था। कोई मंत्री, कोई दरबारी कुछ नहीं बोल सका। पहली बार किसी आम किसान ने राजा से आँख मिलाकर सवाल किए थे।


राजा वीरसेन ने अपना मुकुट उतारा, उसे पास रख दिया और सिंहासन से उतर कर रघु के सामने आ खड़ा हुआ।

 

राजा वीरसेन:

"तूने मुझे वो दिखाया है जो दरबार नहीं दिखा पाया — सच। ये ताज तुम्हारे सवालों से भारी नहीं, हल्का लगने लगा है।"

राजा ने आगे बढ़कर रघु का हाथ पकड़ा और कहा —

राजा:
"आज से मेरा राज तभी सफल कहलाएगा जब तेरे जैसे किसान मुस्कुराएंगे। ये राजमहल तुम्हारा भी है।"


Narrator:
उस दिन, राजा और रघु — दो अलग दुनिया के लोग — एक विचार पर मिल गए। राजा को जनता का दर्द दिखा, और रघु को मिला उसका सम्मान।

यह सिर्फ एक मुलाकात नहीं थी, यह बदलाव की शुरुआत थी।



सीन 4: समाधान और बदलाव

Narrator:
रघु की बातें राजा वीरसेन के दिल में उतर गई थीं। वह राजा था — लेकिन अब उसमें सिर्फ सत्ता नहीं, संवेदना जाग चुकी थी। उसने फैसला लिया कि अब कुछ बदलना ही होगा।


वह तुरंत दरबार में खड़ा हुआ और अपनी तलवार को ज़मीन पर टिका कर बोला —


राजा वीरसेन:
"मेरे राज्य में अब किसी भी भूखे को कर नहीं देना होगा। जब धरती ने अन्न नहीं दिया, तो हम कर कैसे लें?
आज से सभी सूखा-प्रभावित किसानों के कर माफ़ किए जाते हैं!"

दरबार में हलचल मच गई। कुछ मंत्री आपस में फुसफुसाने लगे —

(मंत्री 1): "यह तो परंपरा के विरुद्ध है!"
(मंत्री 2): "राजकोष खाली हो जाएगा!"


राजा वीरसेन (दृढ़ता से):
"राजकोष से राज्य नहीं चलता, विश्वास से चलता है। अगर मेरा एक किसान भी भूखा सोया, तो मेरा राज असफल है।"
"आज से अनाज का भंडार गरीबों में बाँटा जाएगा। हर पंचायत में वितरण की निगरानी खुद दरबार के प्रतिनिधि करेंगे।"


Narrator:
राजा की बात सुनकर कुछ दरबारी झुक गए, कुछ के चेहरे पर लज्जा थी। पहली बार किसी राजा ने सत्ता से ज़्यादा मानवता को चुना था।


घु की आंखों से आँसू निकल पड़े। लेकिन ये आँसू दुख के नहीं थे — ये उन सपनों के थे, जो सालों से सूखे खेतों के नीचे दबे थे।


रघु (कांपती आवाज़ में):
"महाराज… आपने मेरी नहीं, इस धरती की पुकार सुनी है।"

राजा:
"तू सिर्फ किसान नहीं रघु — तू धरती की साँस है, तू इस राज्य की रीढ़ है। तेरी मेहनत से ही हमारा भविष्य बनता है।"

Narrator:
राजा ने रघु को गले लगा लिया। यह दृश्य कोई राजा और प्रजा का नहीं था — यह एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान की पीड़ा को समझने का था।


उस दिन से राजमहल में सिर्फ सुनहरी बातें नहीं, सच्चे बदलाव की शुरुआत हुई। हर गांव में संदेश गया —

“राजा अब सिंहासन से नहीं, दिल से राज करता है।”

 

सीन 5: गांव की नई सुबह

Narrator:
सूरज की पहली किरण जब सोनपुर गांव की मिट्टी को चूमती है, तो इस बार हवा में कुछ अलग होता है — उम्मीद की महक।


"गांव में वो चूल्हे जो पहले ठंडे पड़े रहते थे, अब उनमें हर सुबह आग जलती है। बच्चों की हंसी जो पहले भूख से थकी थी, अब खेतों की मेड़ों पर दौड़ती सुनाई देती है।

और रघु फिर से अपने हल के साथ खेत में निकलता है। लेकिन इस बार उसके कंधों पर अकेलेपन का बोझ नहीं, एक पूरे राज्य का साथ है।"


गांव की औरतें (खुश होकर):
"राजा ने सचमुच हमारी सुनी है। देखो, राशन मिला है! बच्चों को दूध भी मिलेगा आज।"

बच्चा (अपनी मां से):
"अम्मा, क्या अब भूखे नहीं सोना पड़ेगा?"
मां (आंखों में आंसू और मुस्कान साथ-साथ): "नहीं बेटा, अब राजा हमारा है।"

रघु (अपने खेत की मिट्टी को छूते हुए):
"अब ये धरती मुझसे नाराज़ नहीं है… शायद ये भी मुस्करा रही है।"


Narrator:
रघु की आंखों में अब नमी नहीं, चमक है। वह जानता है कि उसकी एक आवाज़ ने राजा का दिल बदल दिया, और राजा के फैसले ने सैकड़ों ज़िंदगियाँ।


महल से राजाज्ञा आई है — गांव में स्कूल बनेंगे, पानी की टंकी बनेगी और खेती के लिए सहायता भी मिलेगी।

लेकिन असली बदलाव क्या था?

किसी सरकारी योजना का काग़ज़ नहीं।
किसी मंत्री का भाषण नहीं।
असली बदलाव था — समझने की इच्छा


Narrator (अंतिम पंक्तियाँ):
राजा वीरसेन ने राज किया, लेकिन सिंहासन से नहीं — दिल से
और रघु ने जीवन जिया, लेकिन झोपड़ी में नहीं — सम्मान में

सच्चा राज वही है जहाँ आम आदमी की बात, राजमहल की गूंज बन जाए। और सच्ची कहानी वही होती है, जो दिल से निकले — और दिल तक पहुँचे।

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