सारांश:
कहानी में एक चालाक और चतुर कौवा है जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को फंसाने की कोशिश करता है। वह अपने नादान दोस्त बगुले को धोखा देता है और फंसा लेता है। बगुला उसकी चालाकी से परेशान होता है, लेकिन फिर उनकी मदद एक समझदार और शांत कछुए से मिलती है। कछुआ बगुले की बुद्धिमानी से सहायता करता है और कौवे की चालाकियों को नाकाम कर देता है। अंत में कहानी यह संदेश देती है कि स्वार्थी और चापलूस दोस्तों से सावधान रहना चाहिए और सच्चे दोस्त वही होते हैं जो मुश्किल समय में मदद करें।
सीन 1: झील की शांति और बगुले का सरल जीवन
गाँव के बाहर एक सुंदर, शांत झील थी। सुबह-सुबह की हल्की धूप झील की लहरों पर पड़ती तो पानी सोने सा चमकने लगता। उस झील के किनारे रहता था एक बगुला — नाम था बबलू। लंबी टांगों वाला, सफेद पंखों वाला और एकदम भोला-भाला।
बबलू हर सुबह सूरज उगने से पहले झील किनारे आता, चुपचाप खड़ा होकर मछलियों की तलाश करता। कभी-कभी घंटों इंतज़ार करता लेकिन मछलियां नहीं मिलने के कारण भूखा भी रहता लेकिन किसी से कुछ नहीं कहता।
बबलू (खुश होकर बड़बड़ाता): "हे झील माई! आज भी कुछ मछलियाँ दे देना... भूख लगी है। और हाँ, आज कोई मगरमच्छ न आ जाए।"
पास ही झील के किनारे कुछ मेंढक टर्र-टर्र कर रहे थे। बबलू ने मुस्कुराकर उन्हें देखा और ध्यान से अपनी गर्दन झील की सतह की ओर झुकाई।
नैरेटर: बबलू के पास ज़्यादा दोस्त नहीं थे, लेकिन उसे इसकी जरूरत भी नहीं लगती थी। वो अपने काम से काम रखता और दूसरों की मदद कर देता। गाँव के बच्चे उसे 'बबलू अंकल' कहकर बुलाते थे।
धीरे-धीरे सूरज ऊपर चढ़ने लगा और झील में हलचल बढ़ गई। मछलियाँ तैरने लगीं, मेंढक कूदने लगे, और चिड़ियों की चहचहाहट पूरे वातावरण को मधुर बना रही थी।
बबलू (मन ही मन): "कितनी सुंदर है ये सुबह.. बस भगवान सबका भला करे। आज मुझे खाने को एक दो मछलियां मिल जाए तो मेरा दिन अच्छा हो जाएगा"
सीन 2: चालाक कालू कौवे की एंट्री
सूरज अब थोड़ा ऊपर चढ़ आया था। झील के चारों ओर हल्की-हल्की रोशनी फैल चुकी थी। मेंढक कूद-कूदकर ताजगी जता रहे थे, और बबलू बगुला चुपचाप किनारे खड़ा मछलियों पर ध्यान लगाए बैठा था।
उसी समय आकाश में एक काला-सा साया मंडराने लगा। वो कोई और नहीं, बल्कि कालू कौवा था — तेज़ निगाहों वाला, चालाक, और मीठी बातें करने में माहिर , धूर्त कौवा बहुत सारे लोगों को चूना लगा चुका था ।"
कालू (खुद से बड़बड़ाता हुआ): "कहीं से तो कुछ जुगाड़ करना पड़ेगा। पेट भी तो भरना है... और यहाँ का बगुला तो दिख ही रहा है... सीधा लगता है।"
कालू झील किनारे एक सूखी टहनी पर आकर बैठ गया। उसकी चाल में आत्मविश्वास था और आँखों में चालाकी।
कालू (बबलू को देखकर मुस्कुराते हुए): "नमस्ते बबलू भैया! कितनी सुंदर सुबह है ना? आप तो आज भी मोती जैसी मछलियाँ पकड़ रहे होंगे!"
बबलू ने चौंक कर देखा। वह कालू को जानता तो नहीं था, लेकिन मुस्कुराकर जवाब दिया।
बबलू: "नमस्ते भाई! हाँ... बस रोज़ की तरह। आप कौन है ? आपको पहले तो कभी नहीं देखा !"
कालू (उत्साहित होकर): "अरे! मैं तो दूर वाले जंगल से आया हूँ। नाम है कालू... लेकिन आप जैसे महान शिकारी के सामने क्या नाम बताऊँ!"
बबलू अपनी तारीफ सुनकर थोड़ा शर्मिंदा हुआ लेकिन मुस्कुराया।
बबलू (मुस्कुराते हुए): "मैं तो बस अपनी भूख मिटा रहा हूँ भाई... ऐसा कुछ नहीं।"
कालू (धीरे-धीरे पास आकर): "आपका धैर्य, आपकी समझ, और आपकी एकाग्रता... सच में अद्भुत है! मैं तो सोच रहा हूँ — अगर आपके जैसे अनुभवी शिकारी के साथ रहने का मौका मिल जाए, तो जीवन ही सफल हो जाए।"
बबलू थोड़ा असहज हुआ। वो इतनी तारीफों का आदी नहीं था। लेकिन उसे बुरा भी नहीं लगा — पहली बार कोई उसकी प्रशंसा कर रहा था।
बबलू: "धन्यवाद... आप बहुत मीठा बोलते हैं।"
कालू (कूटनीति से): "और क्या बताऊँ भैया, यहाँ की मछलियाँ तो बहुत छोटी हैं। आप जैसे शिकारी के लिए तो बड़े तालाब की मछलियाँ ही शोभा देती हैं। मैंने अभी कुछ दिन पहले एक बहुत बड़ा तालाब देखा। वहाँ तो इतनी बड़ी मछलियाँ हैं कि एक दिन में महीने भर का पेट भर जाए!"
बबलू ने चौंक कर देखा।
बबलू: "सच में? कहाँ है वो तालाब?"
कालू: "बस यहाँ से थोड़ी दूर है... मैं आपको कल वहाँ ले जा सकता हूँ। आप तो वैसे भी बड़े शिकारी हैं। वहाँ तो आप राजा बन जाएंगे!"
नैरेटर: कालू की चालाकी काम कर रही थी। बबलू, जो सीधा-साधा और तारीफों से प्रभावित हो चुका था, कालू की बातों में आ गया। पर उसे क्या पता — ये मिठास सिर्फ एक जाल है।
दृश्य धीरे-धीरे खत्म होता है। कैमरा बबलू के भोले चेहरे पर ज़ूम करता है और कालू के धूर्त चेहरे पर मुस्कान फैलती है।
सीन 3: मिठास में छुपा मकसद
अगली सुबह झील पर वैसी ही ठंडी हवा बह रही थी। बबलू हमेशा की तरह अपने पसंदीदा पत्थर के पास खड़ा होकर मछलियाँ देखने में व्यस्त था। तभी आसमान से फिर वही जानी-पहचानी कांव-कांव सुनाई दी।
कालू कौवा अपने काले चमकीले पंखों को फैलाता हुआ उतरा और सीधा बबलू के पास आ बैठा।
कालू (हँसते हुए): "अरे बबलू भैया! आप तो आज भी यहीं? मुझे लगा आपने मेरी बात पर विचार कर लिया होगा!"
बबलू (मुस्कराते हुए): "विचार तो किया भाई, पर झील छोड़ना भी आसान नहीं है। यहीं जन्मा, यहीं पला... सब कुछ तो यही है।"
कालू (गंभीर स्वर में): "भैया, जीवन में बदलाव ही तरक्की की कुंजी है। आप सोचिए — रोज़ एक-एक मछली पकड़कर कितनी मेहनत होती है। और उस नए तालाब में ? वहाँ तो मछलियाँ खुद किनारे आकर नाचती हैं!"
बबलू थोड़ी देर चुप रहा, पर उसके चेहरे पर उलझन साफ़ दिख रही थी।
बबलू: "लेकिन... इतना दूर जाना... और फिर... अगर वहाँ कुछ गलत हो गया तो?"
कालू (आश्वासन देते हुए): "भैया! आप अकेले नहीं जाएंगे, मैं साथ रहूँगा। और आप जैसे चतुर शिकारी को कोई क्या धोखा देगा ? मैं तो कहता हूँ, वहाँ का राजा बनने से आपको कोई रोक नहीं सकता!"
बबलू (धीरे से): "राजा ?"
कालू: "हाँ! वहाँ न कोई बगुला है, न कोई मगरमच्छ... आप पहले शिकारी होंगे। और जो मछली पकड़ेंगे वो सिर्फ आपकी। बस एक बार चलिए ना मेरे साथ। फिर देखिए जीवन कैसे बदलता है।"
बबलू अब सोच में पड़ गया। पहली बार किसी ने उसे इतना खास महसूस कराया था। उसके सपनों को उड़ान दी थी।
बबलू (धीरे-धीरे): "ठीक है... कल सुबह चलते हैं। पर सिर्फ एक बार देखने के लिए।"
कालू (मुस्कराते हुए): "बस यही सुनना चाहता था मैं! कल सूरज उगते ही मैं यहाँ मिलूँगा। फिर चलेंगे हम दोनों, सफलता की उड़ान पर!"
नैरेटर: कालू की चालाकी ने असर कर दिया। बबलू, जो अब तक अपने सीधेपन में शांत था, धीरे-धीरे स्वप्नों के मकड़जाल में फँस रहा था — और उसे अंदाज़ा तक नहीं था कि वह किस जाल में जा रहा है।
दृश्य में हल्का अंधेरा छा जाता है, और संगीत धीरे-धीरे रहस्यमयी होता चला जाता है।
सीन 4: कछुए की चेतावनी
कालू के जाने के कुछ देर बाद, बबलू फिर से झील में चुपचाप खड़ा था। लेकिन अब उसके मन में शांति नहीं थी। उसके दिमाग में कालू की बातें घूम रही थीं — “राजा बनोगे… बड़ी मछलियाँ… सफल जीवन…”
इसी दौरान, झील के पानी में एक गोल-सा सिर धीरे-धीरे ऊपर आया। वह घनश्याम था — एक पुराना, समझदार और शांत कछुआ। बबलू का बचपन का दोस्त।
घनश्याम (धीरे से मुस्कराते हुए): "क्या बात है बबलू भाई? आज कुछ उलझे-उलझे लग रहे हो। मछलियाँ कम हो गईं या मन कहीं और चला गया?"
बबलू ने चौंक कर देखा और मुस्कराने की कोशिश की।
बबलू: "अरे घनश्याम भाई! कुछ नहीं... बस सोच रहा था कि कहीं और भी किस्मत आजमाऊँ..."
घनश्याम (थोड़ा चिंतित होकर): "कहीं और? क्या मतलब?"
बबलू ने कालू की सारी बातें, बड़ा तालाब, बड़ी मछलियाँ और ‘राजा’ बनने की बात विस्तार से बता दी।
घनश्याम ने गहरी सांस ली, फिर चुपचाप किनारे पर चढ़ आया।
घनश्याम: "बबलू, तुम जैसे शांत और मेहनती बगुले से ये उम्मीद नहीं थी कि एक अनजान कौवे की चापलूसी पर इतना बड़ा निर्णय ले लोगे।"
बबलू (थोड़ा झुंझलाते हुए): "तो क्या हमेशा यहीं मछलियाँ पकड़ता रहूँ? क्या बुरा है थोड़ा बदलना?"
घनश्याम (गंभीर स्वर में): "बदलाव बुरा नहीं होता, लेकिन बिना जांचे-परखे बदलाव खतरनाक होता है। कालू को तुम जानते तक नहीं। और वो खुद क्यों नहीं जाता उस तालाब में?"
बबलू चुप हो गया। बात तो सही थी। लेकिन कालू की मीठी बातों की खुमारी अभी उतरी नहीं थी।
बबलू: "तुम हमेशा डरते हो। हर नए विचार को खतरा समझते हो। शायद तुम्हें बदलाव से डर लगता है।"
घनश्याम (शांत स्वर में): "नहीं बबलू, मैं सिर्फ यह चाहता हूँ कि तुम सोच-समझकर निर्णय लो। अगर कुछ गलत हुआ तो पछताने का समय भी नहीं मिलेगा।"
घनश्याम ने एक अंतिम नजर बबलू पर डाली — उसके चेहरे पर चिंता थी, मगर जबरन शांत दिखने की कोशिश भी। फिर वह धीरे-धीरे पानी में उतर गया।
नैरेटर: दोस्ती वही होती है जो खतरे से पहले आगाह करे। लेकिन कई बार, सच्ची बातें कड़वी लगती हैं... और बबलू की आँखों पर अभी भी मीठी बातों की पट्टी बंधी थी।
सीन खत्म होता है, और बैकग्राउंड में एक हल्का उदासी भरा संगीत बजता है।
सीन 5: साजिश का ताना-बाना
रात हो चुकी थी। झील शांत थी लेकिन उससे कुछ दूरी पर एक सूखा पीपल का पेड़ खड़ा था। उस पर कालू कौवा अकेला बैठा था — पर उसका दिमाग तेज़ी से काम कर रहा था।
उसकी आँखों में चंचलता नहीं, बल्कि एक **गहरा और सुनियोजित धोखा** चमक रहा था। चाँद की हल्की रोशनी में उसका चेहरा डरावना और चालाक लग रहा था।
कालू (बड़बड़ाते हुए, खुद से): "बबलू जैसे भोले जीवों को बहकाना सबसे आसान है। क्या मिठास में लपेटा है अपने शब्दों को! 'राजा बनोगे', 'बड़ी मछलियाँ'... हाहाहा..."
वह डाल से नीचे उड़कर एक झाड़ी के पास आता है, जहां कुछ सूखी हड्डियाँ और पंख बिखरे पड़े हैं — यह वह जगह है जहां वह पहले भी कई निर्दोष पक्षियों को फंसा चुका है।
कालू (धीरे से, गहरी आवाज़ में): "यह वही दलदल है... जहाँ एक बार कोई बगुला फंसा, तो निकल नहीं पाया। और मैं...? मैं आराम से उड़कर देखता रहा!"
वह फिर ऊपर उड़ता है, एक टहनी पर बैठकर आकाश की ओर देखता है।
कालू: "कल बबलू भी वहीं जाएगा। सोचता है मैं उसका दोस्त हूँ... उसे क्या पता मैं तो सिर्फ अपना खेल खेल रहा हूँ। अगर वो डूबा, तो उसकी मछलियाँ मेरी होंगी, और उसका नाम खत्म!"
उसकी आँखें सिकुड़ती हैं और एक चालाक मुस्कान फैल जाती है।
कालू (चुपचाप, धीमे स्वर में): "और सबसे अच्छी बात? वो कछुआ जो उसे समझा रहा है — वो क्या करेगा? धीरे चलता है, धीरे सोचता है, और जब तक कुछ समझेगा, तब तक बबलू फंस चुका होगा।"
सामने एक उल्लू उड़ता है, जिसे देखकर कालू फुसफुसाता है:
कालू: "देख लेना उल्लू भाई, कल ये बगुला मेरे जाल में खुद चलकर आएगा। और तब होगी मेरी असली दावत!"
नैरेटर: चालाकी का सबसे गहरा रंग वही होता है जो दोस्ती के मुखौटे में छिपा हो। बबलू को क्या पता — जिसे वह साथी समझ रहा है, वो तो उसी की कमजोरी को अपना हथियार बना रहा है।
सीन का अंत होता है — कालू अंधेरे में गायब हो जाता है, और बैकग्राउंड में रहस्यमयी संगीत बजता है।
सीन 6: सफर की शुरुआत और जाल में फंसना
अगली सुबह सूरज की पहली किरणें झील पर पड़ चुकी थीं। बबलू अपने पंख समेटे, पूरी तैयारी में था। कालू कौवा ऊपर से उड़ता हुआ आया और डाल पर बैठा।
कालू (खुश होकर): "बधाई हो बबलू भैया! आज से आपकी नई शुरुआत का दिन है। नए तालाब, नई दुनिया — चलें?"
बबलू (थोड़ा घबराया हुआ): "हम्म... चलो, पर ज्यादा दूर न हो..."
कालू (चालाक मुस्कान के साथ): "नहीं-नहीं, पास ही है। बस एक छोटी उड़ान और फिर आराम ही आराम।"
दोनों उड़ान भरते हैं। बबलू धीरे-धीरे उड़ रहा है और नीचे झील को देखता जाता है — जैसे वह जानता हो कि कुछ खो रहा है।
नैरेटर: बबलू की आँखों में नए जीवन की उम्मीदें थीं, लेकिन वह यह नहीं जानता था कि वह उड़ नहीं रहा, बल्कि फंसने जा रहा है।
करीब 10 मिनट की उड़ान के बाद वे एक वीरान इलाके में पहुंचते हैं — वहां की हवा गीली है, जमीन दलदली और पानी में हरकत नहीं।
बबलू (चौंकते हुए): "यह… यह जगह तो बहुत गंदी है। यहाँ मछलियाँ कहाँ हैं?"
कालू (तेज़ी से): "भैया! यही तो जादू है। यहाँ मछलियाँ पानी के नीचे छिपी होती हैं। जैसे ही तुम चोंच मारोगे, वो झपट्टा मारकर बाहर आ जाएँगी।"
बबलू घबराकर जमीन पर उतरता है। उसके पैर दलदल में थोड़े धँस जाते हैं।
बबलू (चिंतित होकर): "ये जमीन तो बहुत नरम है... और पानी में तो कोई हलचल भी नहीं!"
कालू (जाली मुस्कान के साथ): "आप ज़रा और अंदर जाइए ना... तभी तो असली जगह मिलेगी। बाहर-बाहर कुछ नहीं होता।"
बबलू धीरे-धीरे और अंदर जाता है, और तभी —
नैरेटर (तेज स्वर में): तभी बबलू के पैर बुरी तरह दलदल में फँस जाते हैं। वो निकलने की कोशिश करता है, लेकिन हर बार वह और गहराई में धँसता है!
बबलू (घबराकर): "कालू! मुझे निकालो... ये क्या हो गया?!"
लेकिन कालू अब ऊपर एक डाल पर बैठा हँस रहा था। उसकी आवाज़ अब बदल चुकी थी — उसमें अब दोस्ती नहीं, बल्कि कुटिलता थी।
कालू (ठहाका मारते हुए): "अरे बबलू भैया! मछलियाँ तो नहीं मिलीं... पर आप खुद शिकार बन गए!"
बबलू (तड़पते हुए): "तुमने धोखा दिया…? तुम दोस्त थे!"
कालू (व्यंग्य में): "मुझे दोस्त मत कहो… मैं सिर्फ मौके का शिकारी हूँ। और तुम जैसे भोले जीव… मेरा सबसे आसान शिकार!"
बबलू की आँखों में आँसू थे, उसका शरीर आधा दलदल में धँस चुका था।
नैरेटर: अब बबलू को याद आने लगा — घनश्याम की बातें, उसकी चेतावनी… हर शब्द सच साबित हो रहा था। पर अब देर हो चुकी थी। या शायद… नहीं?
सीन धीरे-धीरे अंधेरे में बदलता है। बैकग्राउंड में एक भारी और डरावना संगीत बजता है।
सीन 7: कछुए की वापसी और बुद्धिमानी की जीत
बबलू अब लगभग गर्दन तक दलदल में फँस चुका था। उसकी साँसें तेज़ थीं, पंख काँप रहे थे और आँखों से आँसू बह रहे थे।
बबलू (कमज़ोर स्वर में): "काश मैंने घनश्याम की बात मानी होती... मैं कितना मूर्ख था..."
उसी समय, दूर झाड़ियों में कुछ हलचल होती है। घनश्याम कछुआ अपने भारी खोल के साथ धीरे-धीरे सामने आता है।
घनश्याम (गंभीर स्वर में): "बबलू! मैं आ गया हूँ। मैंने सब सुन लिया था, और तभी से तुम्हें ढूँढ़ रहा था। हिम्मत रखो!"
बबलू (हैरान होकर): "घनश्याम! तुम... लेकिन तुम इतनी दूर कैसे पहुँचे?"
घनश्याम (मुस्कराकर): "जब दोस्त मुसीबत में हो, तो दूरी कोई मायने नहीं रखती। अब ध्यान से सुनो, हमें मिलकर निकलना होगा।"
इस बीच, कालू ऊपर बैठा सब देख रहा था।
कालू (हँसते हुए): "अब एक और मूर्ख आ गया है दलदल में कूदने! हाहाहा! ये तो मज़ा दुगना हो गया!"
घनश्याम उसकी बात पर ध्यान नहीं देता। वह एक लंबी बेल लाता है जो उसने रास्ते में पेड़ों से निकाल ली थी।
घनश्याम: "बबलू, इस बेल को अपनी चोंच से पकड़ो और जितना हो सके पंख फैला कर स्थिर रहो। मैं पीछे से खींचूँगा।"
बबलू हिम्मत करके बेल पकड़ता है। घनश्याम अपनी सारी ताक़त लगाकर उसे धीरे-धीरे खींचता है। बबलू की टाँगें दलदल से बाहर आने लगती हैं।
यह एक लंबा संघर्ष है — एक ओर चतुराई और स्वार्थ, दूसरी ओर दोस्ती और धैर्य।
नैरेटर (उत्साहपूर्वक): धीरे-धीरे... बबलू का शरीर ऊपर आता है... और अंततः... वह पूरी तरह दलदल से बाहर निकल आता है!
बबलू घनश्याम को देखता है — आँखों में कृतज्ञता और पश्चाताप।
बबलू (रोते हुए): "मुझे माफ कर दो दोस्त… मैं तुम्हारी बात नहीं मान सका। और उस धोखेबाज़ की चापलूसी में आ गया।"
घनश्याम (हाथ रखकर): "गलती करना बुरा नहीं है, बबलू… पर गलती से सीखना महानता है।"
कालू अब हक्का-बक्का है। बबलू की आँखों में तेज है। वह उड़कर कालू की ओर आता है।
बबलू (गंभीर स्वर में): "मुझसे दूर रहो कालू। मैं अब किसी की मीठी बातों में नहीं आने वाला। तुम्हारे जैसे दोस्त से तो अकेलापन बेहतर है।"
कालू कुछ बोलता नहीं, बस पीछे उड़ जाता है — शर्म और हार में।
नैरेटर (भावुक स्वर में): इस कहानी में कौवा हार गया — उसकी चालाकी और चापलूसी उसे कहीं नहीं ले गई। लेकिन कछुए की समझदारी और सच्ची दोस्ती ने बगुले को जीवनदान दिया।
सीन समाप्त होता है — बबलू और घनश्याम झील की ओर लौटते हैं, और सूरज की पहली किरण उन पर पड़ती है।
सीन 8: सीख और समापन
धूप की सुनहरी किरणें झील के पानी पर चमक रही थीं। बबलू और घनश्याम साथ-साथ बैठकर शांत झील को देख रहे थे।
बबलू (गहरी सांस लेते हुए): "मैंने आज बड़ी कीमत चुकाई, घनश्याम। सोचता हूँ कि अगर मैं पहले तुम्हारी बात मान लेता, तो ये सब नहीं होता।"
घनश्याम (मुस्कुराते हुए): "गलतियाँ इंसान (या पक्षी) का हिस्सा होती हैं, बबलू। लेकिन जरूरी ये है कि हम उनसे सीखें। याद रखो — असली दोस्त वही है जो सच्चाई बताता है, चाहे वह मीठा लगे या कड़वा।"
बबलू झील की तरफ देखते हुए धीरे से कहता है:
बबलू: "अब मैं किसी भी चतुर और चापलूसी करने वाले दोस्त से सावधान रहूँगा। क्योंकि जो अपना मतलब निकालता है, वो दोस्त नहीं, धोखेबाज़ होता है।"
घनश्याम सिर हिलाता है और कहता है:
घनश्याम: "और हमेशा याद रखना — बुद्धिमानी और धैर्य से बड़ी से बड़ी मुसीबत भी हल हो जाती है।"
तभी दूर से कालू कौवा झुंझलाते हुए उड़ता हुआ जाता दिखता है। उसकी चालाकी अब बेकार साबित हो चुकी थी।
नैरेटर (धीमे और भावुक स्वर में): "दोस्ती का मतलब सिर्फ साथ होना नहीं, बल्कि एक-दूसरे की भलाई की चिंता करना है। और याद रखो — चालाकी और चापलूसी में फंसे बिना, सच्चाई और समझदारी से ही हम जीवन में आगे बढ़ सकते हैं।"
सूरज धीरे-धीरे अस्त होने लगता है, और झील के ऊपर की हवा में शांति का एहसास फैल जाता है।
सीन का अंत होता है — बबलू और घनश्याम साथ मिलकर उड़ते हैं, नई उम्मीदों के साथ।
